जालंधर(विनोद मरवाहा)
आदि से आज तक, वैदिक से कलि तक गुरु-शिष्य का शाश्वत संबंध सदा स्थायी रहा है। गुरु-शिष्य की इसी शाश्वत परिभाषा से रूबरू करवाने के लिए दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, नूरमहल आश्रम में मासिक भंडारे के दौरान श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साधवी भाग्यश्री भारती जी ने बताया कि गुरु शिष्य के संबंध में प्रखरता किसी बाहरी आधार पर नहीं बल्कि आंतरिक आधार पर आती है। यह देह का नहीं आत्मा का संबंध होता है। हम जितना अपने भीतर का गोता लगाएंगे, उतना ही अपने गुरु के साथ जुड़ते जाएंगे और जब हम गुरु के साथ भीतर से जुड़ते हैं तो न केवल गुरु के संदेशों को समझते हैं, बल्कि गुरु स्वयं हमारी प्ररेणा बनकर हमें इस पर चलाते हैं अपने हर कार्य का संचालन हमसे करवाते हैं।
साधवी भाग्यश्री भारती जी ने कहा कि इसलिए हमें साधना के माध्यम से गुरु के साथ भीतर से सबंध साधना चाहिए। भक्ति की इसी सनातन श्रृंखला में आगे स्वामी गुरुकिरपानंद जी ने बताया कि गुरु और शिष्य का रिश्ता दो स्तंभों के आधार पर टिका होता है। वह है श्रद्धा और विश्वास, साधना और सेवा एवं त्याग और समपर्ण। इनके बिना साधक के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह सब एक शिष्य के द्वारा अपने गुरु के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम की भावना को प्रगट करता है, जो अन्य किसी भी संसारिक रिश्ते से प्राप्त नहीं किया जा सकता। संसार में सभी रिश्तों के प्रेम को प्राप्त करने का कोई ना कोई विकल्प जरूर होता है, लेकिन गुरु के प्रेम का कोई विकल्प नहीं होता।
उन्होंने कहा कि गुरु का प्रेम केवल और केवल गुरु से ही प्राप्त किया जा सकता है। अगर किसी के पिता न हो तो किसी भी वृद्ध पुरुष को सम्मान देकर उससे पिता का प्रेम प्राप्त किया जा सकता है, अगर किसी की मां ना हो तो किसी भी वृद्धा स्त्री के साथ स्नेह कर उससे मां का प्रेम प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन गुरु का कोई विकल्प नहीं। साधवी भाग्यश्री भारती जी के अनुसार अगर एक शिष्य गुरु से अध्यात्म की दौलत को प्राप्त करना चाहता है तो उसकी पहली शर्त है समपर्ण, बिना समपर्ण के कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। समपर्ण केवल बाहरी प्रतिक्रिया नहीं बल्कि अंतर्मन की एक अवस्था का नाम है।